Tuesday, July 23, 2019

जागेश्वर धाम का इतिहास और महत्व । धड़ से लिंग अलग होने का श्राप किसने दिया शिव को? पढ़िए

जागेश्वर धाम का इतिहास और पौराणिक महत्व 



जागेश्वर धाम अल्मोड़ा नगर से पूर्वोत्तर दिशा में पिथौरागढ़ मार्ग पर 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है| जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से  आध्यात्मिक  जीवंतता प्रदान कर रहे हैं|
जागेश्वर मंदिर समुद्र तल से 1870 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है| देवदार के घने वृक्षों से घिरे यो घाटी बहुत सुंदर तीर्थ स्थल है |जागेश्वर में 124 मंदिरों का एक बहुत बड़ा समूह है| जागेश्वर मंदिर एक प्राचीन मंदिरों का समूह है इन मंदिरों में आज भी नित्य पूजा-अर्चना होती है| यहां इससे स्थित शिवलिंग भगवान् शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक रूप में विख्यात है|

 12 ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं-
प्रथम श्री सोमनाथ, दूसरा श्री शैल पर्वत जो तमिलनाडु के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्री मल्लिकार्जुन के नाम से कैलाश पर्वत पर स्थित है, तीसरा मध्य प्रदेश के उज्जैन में श्री महाकाल के नाम से विख्यात है, चौथा ओमकारेश्वर के नाम से जाना जाता है, पांचवा हैदराबाद के परली वैद्यनाथ के नाम से विख्यात है, छठवां पुणे के उत्तर भीमा नदी के तट पर डाकिनी नामक स्थान पर श्री भीम शंकर के नाम से स्थित है,  सातवां  श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु में, आठवां  उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में जागेश्वर धाम, नवे के रूप में वाराणसी में बाबा विश्वनाथ दसवां श्री त्रिंबकेश्वर नासिक में और देवभूमि उत्तराखंड के केदारखंड में स्थित श्री केदारनाथ 11 ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात है|

 जागेश्वर मंदिरों का निर्माण किसने करवाया इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं मिलता किंतु इन मंदिरों का जीर्णोद्धार राजा शालिवाहन ने अपने शासनकाल में कराया था| पौराणिक काल में भारत में कौशल, पंचाल, मत्स्य, मगत, अंग, एवं वंग नामक अनेक राजाओं का उल्लेख मिलता है|  चंद राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी| देवचंद से लेकर बाज बहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा अर्चना की| बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गौरीकुंड और जागेश्वर की  मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रही| जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की स्थानीय विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश लिंग घोषित किया गया|

कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दुखी भगवान शिव ने यज्ञ की भस्मी लपेटकर दायक वन के घने जंगलों में  तप किया| इन्हीं जंगलों में वशिष्ठ आदि सप्त ऋषि अपनी पत्नी सहित कुटिया बनाकर तप करते थे\ शिव जी कभी दिगंबर अवस्था में नाचने लगते थे 1 दिन सप्त ऋषि की पत्नियां जंगल में कंदमूल फल है लकड़ियां आदि लेने के लिए गई तो उनकी दृष्टि दिगंबर शिव पर पड़ गई सुगठित स्वस्थ पुरुष  को देखकर वह अपनी सुध बुध खोने  लगी और उदंती में सबको सचेत किया किंतु इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रहा| शिव भी अपनी धुन में रमे थे उन्होंने भी इस पर ध्यान नहीं दिया\ ऋषि पत्नियां का मधुकर मूर्छित हो गई वे रातभर अपनी कुटिया में वापस नहीं आई तो प्रातः ऋषिवर उन्हें ढूंढने निकले जब उन्होंने देखा कि शिव साधना में लीन है| और उनकी पत्नियां मूर्छित पड़ी है तो उन्होंने  व्यभिचार  किए  जाने की आशंका से शिव को श्राप दे दिया| कहा कि तुमने  हमारी पत्नियों के साथ व्यभिचार किया है अतः तुम्हारा लिंग तुरंत तुम्हारे शरीर से अलग होकर घिर जाए| शिव ने नेत्र खोला और कहा कि आप लोगों ने मुझे संदेश जनक परिस्थितियों में देखकर अज्ञान के कारण ऐसा किया है इसलिए मैं इस श्राप का रोस  नहीं करूंगा| मेरा लिंग  गिरकर इस स्थान पर स्थापित हो जाएगा| तुम सब ऋषि भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटकते रहोगे| लिंग के शिव से अलग होते ही संसार में त्राहि-त्राहि मच गई ब्रह्मा जी ने संसार को इस प्रकोप से बचाने के लिए ऋषियो को मां पार्वती की उपासना का सुझाव देते हुए कहा कि शिव के इस  तेज  को पार्वती ही धारण कर सकती है ऋषियो ने पार्वती जी की उपासना की पार्वती ने योनि रूप में प्रकट होकर शिवलिंग को धारण किया इस शिवलिंग को योगेश्वर शिवलिंग के नाम से पुकारा गया|


 जागेश्वर मंदिरों का इतिहास-

 उत्तर भारत में गुप्त राजाओं के राज्य के दौरान हिमालय की पहाड़ियों  के कुमाऊं  में कत्यूरी राजाओं का राज्य था| जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ था| इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखाई पड़ती है| भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इस मंदिर के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है जो  क्रमशः कत्यूरी काल उत्तरकत्यूरी  और चंद्र काल है| कुमाऊं के किन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य  जागेश्वर धाम में ही नहीं वरन पूरे अल्मोड़ा जिले में 400 से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर धाम में लगभग 150 छोटे बड़े मंदिर हैं| मंदिरों का निर्माण लकड़ी तथा सीमेंट की जगह बड़े-बड़े पत्थरों से किया गया है दरवाजे की चौखट देवी देवताओं की मूर्तियों से अलंकृत है| मंदिरों के निर्माण में ताबे की चादरों और देवदार की लकड़ी का प्रयोग किया गया है|'


जागेश्वर मंदिर की स्थिति -

 जागेश्वर मंदिर पतित पावनी जाट गंगा के तट पर समुद्र तल से 5000 फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर धाम  स्थित है| कुदरत ने इस स्थान पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती  जी भर कर लुटाई है| लोग विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर धाम संसार के पालनहार भगवान विष्णु द्वारा स्थापित 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है|

जागेश्वर धाम का पौराणिक महत्व -

पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्त ऋषियों ने यहां तपस्या की थी| कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नत है उसी रूप में स्वीकार हो जाती थी| जिसका भारी दुरूपयोग हो रहा था| आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके उस दुरूप्रयोग को रोकने की व्यवस्था की आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होती केवल यज्ञ अनुष्ठान से मंगलकारी 
मनोकामनाएं पूरी हो सकती है|


जागेश्वर धाम कैसे पहुंच -

नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर 
यहां से जागेश्वर मंदिर की दूरी 170 किलोमीटर है|

नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम
 यहां से जागेश्वर मंदिर की दूरी 150 किलोमीटर है|

 सड़क मार्ग
 अगर आप हल्द्वानी से आते हैं तो हल्द्वानी से जागेश्वर मंदिर की दूरी 150 किलोमीटर है| हल्द्वानी से प्राइवेट बसें और टैक्सी बहुत मिलती है \
अगर आप रामनगर से आते हैं तो रामनगर से जागेश्वर मंदिर की दूरी लगभग 180 किलोमीटर है|
 अगर आप पिथौरागढ़ से आते हैं तो पिथौरागढ़ से जागेश्वर मंदिर की दूरी  80 किलोमीटर है|
 जागेश्वर धाम में रुकने के लिए गेस्ट हाउस, होटल और कुमाऊं मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस उपलब्ध है|



और पढ़िए -


बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (पत्थर मरने वाली लड़ाई ) के बारे में जाने















Sunday, July 21, 2019

बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (पत्थर मरने वाली लड़ाई ) के बारे में जाने


बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (बग्वाल महोत्सव )









बग्वाल मेला  - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध | देवीधुरा का प्रसिद्ध बाराही मंदिर उत्तराखंड के चंपावत जनपद में स्थित है | बाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पाषाण युद्ध बग्वाल मेला होता है|  जिसे पत्थरों द्वारा चार पक्षों के परस्पर युद्ध खेला जाता है  इसे बग्वाल  कहते हैं| इस पाषाण कालीन  युद्ध में योद्धा अपने  साथ ढाले लेकर आते हैं| जिसे युद्ध के दौरान अपनी रक्षा के लिए  इस्तेमाल किया जाता है|


 पाषाण युद्ध (बग्वाल मेला) गहड़वाल खाम,  चमियाला खाम, वालिक खाम और लमगढ़िया खाम के बीच किया जाता है| श्रावण मास की पूर्णिमा को  लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करने वाला पौराणिक धार्मिक ऐतिहासिक स्थल देवीधुरा मां बाराही धाम अपने इस पाषाण युद्ध के लिए पूरे भारत सहित पुरे दुनिया में प्रसिद्ध है|

श्रावण मास की पूर्णिमा  के दिन पूरे भारतवर्ष में रक्षाबंधन का त्यौहार पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है| इस दिन योद्धाओं की बहनें अपने भाइयों को बग्वाल  के लिए तैयार करती हैं युद्ध में प्रयोग होने  वाले ढाल  को सजा कर विदा किया जाता है




 मां बाराही देवीधुरा धाम में प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा के अनुसार 12वीं धाम में रक्षाबंधन के दिन यहां के स्थानीय लोग चार दलों में विभाजित होकर जिन्हें खाम जाता है|   क्रमशः गहड़वाल खाम,  चमियाला खाम, वालिक खाम और लमगढ़िया खाम  दो समूह में बढ़ जाते हैं|और इसके बाद होता है युद्ध (बग्वाल )जो पत्थरों को अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है  




 इस पाषाण कालीन युद्ध को कुमाऊनी भाषा मे बग्वाल कहा जाता है | यह को बग्वाल कुमाऊं की संस्कृति का अभिन्न अंग है| श्रावण मास में पूरे महीने यहां मेला लगता है|  जहां सबके लिए यह दिन रक्षाबंधन का दिन होता है वही कुमाऊं और देवीधुरा के लिए यह दिन पत्थर युद्ध  बग्वाल के रूप में जाना जाता है| धार्मिक आस्था के साथ साथ जो स्थान हिमालय के अद्भुत दृश्य के लिए भी जाना जाता है जो भक्तों को एक अलग ही आनंद देता है|देवीधुरा में सिद्धि भी मां बाराही के मंदिर के परिसर के आसपास अन्य स्थलों में खुली कार्ड दुर्गा चौक खोलीगाड़  दुर्वाचोड़ गुफा के अंदर  बाराही शक्तिपीठ का दर्शन परिसर में ही स्थित संस्कृत महाविद्यालय परिसर शंखचक्र, घंटाघर, गुफा, भीमशिला आदि प्रमुख हैं|




देवीधुरा में बसने वाली मां बाराही का मंदिर 52 पीठों में से एक माना जाता है| मुख्य मंदिर में तांबे की पेटी में मां बाराही देवी की मूर्ति है| इस बाराही देवी की मूर्ति को अभी तक किसी ने नहीं देखा है| हर साल भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा को बागड़ जाति के क्षत्रिय वंशज द्वारा ताम्र पेटी का को मुख्य मंदिर से नंद गांव में लाया जाता है| जहां आंखों में पट्टी बात कर मां बाराही को स्नान करा कर सिंगार किया जाता है|





पूजा अर्चना के बाद मां बाराही की मूर्ति को गोद में रखकर मंदिर के प्रांगण में परिक्रमा की जाती है| और सभी भक्तों पर मां का आशीर्वाद लेकर सुख की प्राप्ति करते हैं|  जय मां बाराही जय मां भगवती

 इस पोस्ट को शेयर कर हमारी इस परम्परा को जीवित रखने में सहयोग करे और अपने दोस्तों को इस परम्परा के बारे में बताते अपने दोस्तों को शेयर करना न भुए|


 इन्हे भी पड़े -


बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (पत्थर मरने वाली लड़ाई ) के बारे में जाने


जानिए हरेले पर्व में दिए जाने वाले आशीर्वाद का क्या अर्थ है? जानिए


हरेला पर्व उत्तराखंड का लोकपर्व - जानिए क्यों मानते है हरेला त्यौहार?





जागेश्वर धाम का इतिहास और महत्व । धड़ से लिंग अलग होने का श्राप किसने दिया शिव को? पढ़िए




Wednesday, July 17, 2019

जानिए हरेले पर्व में दिए जाने वाले आशीर्वाद का क्या अर्थ है? जानिए




हरेले पर्व में दिए जाने वाले आशीर्वाद 

हरेला देवभूमि उत्तराखंड का एक प्रमुख त्यौहार है। श्रावण शुरू होने से नौ या दस दिन पहले घरों में जो हरेला बोया जाता है,

जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश करता है,तो उसे कर्क संक्रांति कहते हैं। इस दिन प्रातःकाल से ही पूरे परिवार के लोग हरेला पर्व की तैयारी में लग जाते हैं।बड़े और बुजुर्ग लोग अपने से छोटे लोगों को आशीर्वाद देते हुए हरेला लगाते हैं। इस मौके पर माताएं और बुजुर्ग महिलाएं  परिवारजनों को दीर्घायु,बुद्धिमान और शक्तिमान होने की शुभकामनाएं देती हैं और अपने पुत्र-पौत्रों को संघर्षपूर्ण जीवन-रण में ‘विजयी भव’ होने का आशीर्वाद देते हुए स्थानीय भाषा में कहती हैं-


“जी रये, जागि रये, तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,।
हिमाल में ह्यूं छन तक, 
गंगज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये, 
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”

जी रये, जागि रये, तिष्टिये,पनपिये, - “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो|
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये -दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले।
हिमाल में ह्यूं छन तक,- जब तक कि हिमालय में बर्फ है,
गंगज्यू में पांणि छन तक - गंगा में पानी है,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये- तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें।
अगासाक चार उकाव - आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, 
धरती चार चकाव है जये - धरती की तरह चौड़े बन जाओ,
स्याव कस बुद्धि हो - सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, 
स्यू जस पराण हो - शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो” 

 ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर के बड़े बूढ़े व बजुर्ग महिलाएं बच्चों, युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं।


इन्हे भी पड़े -

बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (पत्थर मरने वाली लड़ाई ) के बारे में जाने


जानिए हरेले पर्व में दिए जाने वाले आशीर्वाद का क्या अर्थ है? जानिए


हरेला पर्व उत्तराखंड का लोकपर्व - जानिए क्यों मानते है हरेला त्यौहार?





जागेश्वर धाम का इतिहास और महत्व । धड़ से लिंग अलग होने का श्राप किसने दिया शिव को? पढ़िए



हरेला पर्व उत्तराखंड का लोकपर्व - जानिए क्यों मानते है हरेला त्यौहार?



हरेला पर्व उत्तराखंड का लोकपर्व - हरियाली और खुशहाली का पर्व हरेला त्यौहार



हरियाली और खुशहाली का पर्व ‘हरेला- जानिए क्यों मानते है हरेला त्यौहार ?

लोकपर्व हरेला देवभूमि उत्तराखंड का एक प्रमुख त्यौहार है। श्रावण शुरू होने से नौ या दस दिन पहले घरों में जो हरेला बोया जाता है,उसे श्रावण मास की कर्क संक्रांति को काटा जाता है।भारतीय पंचांग के अनुसार,जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश करता है,तो उसे कर्क संक्रांति कहते हैं। 

इस दिन प्रातःकाल से ही पूरे परिवार के लोग हरेला पर्व की तैयारी में लग जाते हैं।बड़े और बुजुर्ग लोग अपने से छोटे लोगों को आशीर्वाद देते हुए हरेला लगाते हैं। इस मौके पर माताएं और बुजुर्ग महिलाएं  परिवारजनों को दीर्घायु,बुद्धिमान और शक्तिमान होने की शुभकामनाएं देती हैं और अपने पुत्र-पौत्रों को संघर्षपूर्ण जीवन-रण में ‘विजयी भव’ होने का आशीर्वाद देते हुए स्थानीय भाषा में कहती हैं-

“जी रये, जागि रये, तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,।
हिमाल में ह्यूं छन तक, 
गंगज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये, 
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”

जी रये, जागि रये, तिष्टिये,पनपिये, - “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो|
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये -दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले।
हिमाल में ह्यूं छन तक,- जब तक कि हिमालय में बर्फ है,
गंगज्यू में पांणि छन तक - गंगा में पानी है,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये- तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें।
अगासाक चार उकाव - आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, 
धरती चार चकाव है जये - धरती की तरह चौड़े बन जाओ,
स्याव कस बुद्धि हो - सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, 
स्यू जस पराण हो - शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो” 

 ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर के बड़े बूढ़े व बजुर्ग महिलाएं बच्चों, युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं। दूर प्रवास में रहने वाले परिजनों को भी वर्ष भर हरेले की इन पीली पत्तियों का इन्तजार रहता है कि कब चिट्ठी आए और कब वे हरेले की इन पत्तियों के रूप में अपने बुजुर्गों का शुभ आशीर्वाद शिरोधार्य कर सकें।


हरेला पर्व उत्तराखंड का एक प्रमुख सांस्कृतिक त्योहार होने के साथ साथ यहां की परंपरागत कृषि से जुड़ा सामाजिक और कृषि वैज्ञानिक महोत्सव भी है। उत्तम खेती, हरियाली, धनधान्य, सुख -संपन्नता आदि से इस त्यौहार का घनिष्ठ सम्बंध रहा है। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ, मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। 

धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं।10वें दिन संक्रान्ति को हरेला काटा जाता है। घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में सबसे पहले हरेला चढ़ाया जाता है और फिर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग बच्चों, युवाओं, पुत्र, पुत्रियों, नाती, पोतों के पांवों से छुआते हुए ऊपर की ओर शरीर पर स्पर्श कराते हुए हरेले की पत्तियों को शिर में चढ़ाते हैं तथा “जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये” बोलते हुए आशीर्वाद देते हैं। 

‘हरेला’ महोत्सव मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाली हरित क्रान्ति का निरन्तर रूप से चलने वाला वार्षिक अभियान भी है जिस पर हमारी जीवनचर्या टिकी हुई है तथा उत्तराखंड राज्य की हरियाली और खुशहाली भी।इसलिए हरित क्रान्ति के इस अभियान पर विराम नहीं लगना चाहिए। हरेले पर्व का मातृ-प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के दिन मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली पूरे साल भर चाहिए।यही कारण है कि उत्तराखंड कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया और सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को मिला। हरेला उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ी और पथरीली धरती में हरित क्रान्ति लाने की नव ऊर्जा भरने का लोकपर्व भी है। 

किसी जमाने में हरेला पर्व से ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का शुभारम्भ धरती पर हुआ करता था। सावन-भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना सकें, उसे शाक-सब्जी उगा कर हरा भरा रख सकें। धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया सकता है। समस्त उत्तराखंड आज जल संकट और पलायन की विभीषिका को झेल रहा है उसका कारण यह है कि परंपरागत खाल,तालाब आदि जलभंडारण के स्रोत सूख गए हैं उन्हें भी इन्हीं बरसात के मौसम में पुनर्जीवित किया जा सकता है।

आइए ! हरेले त्यौहार के इस पावन अवसर पर उत्तराखंड में हरित क्रांति के संदेश को जन जन तक पहुंचाएं और देवभूमि उत्तराखंड को खुशहाल और उपजाऊ बनाने में अपना योगदान दें। हरेले त्यौहार के इस पावन पर्व पर सभी देशवासियों और उत्तराखण्डवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।

“जी रया, जागि रया, तिष्टिया,पनपिया ” !!


इन्हे भी पड़े -

बग्वाल मेला - मां बाराही देवी धाम देवीधुरा में होने वाला पाषाण युद्ध (पत्थर मरने वाली लड़ाई ) के बारे में जाने


जानिए हरेले पर्व में दिए जाने वाले आशीर्वाद का क्या अर्थ है? जानिए


हरेला पर्व उत्तराखंड का लोकपर्व - जानिए क्यों मानते है हरेला त्यौहार?





जागेश्वर धाम का इतिहास और महत्व । धड़ से लिंग अलग होने का श्राप किसने दिया शिव को? पढ़िए